29 नवंबर, 2010

पदम क्षेत्री

चित्र के लिए आभार ; Thanks to : http://www.gpaulbishop.com/
ओळूं डंक
सड़क सूनी
अर अंधारो अणमाप,
मोड़ माथै
चर्च मांय मोणबत्तियां रो उजास
कैरोल गावै लोग
बारै आवैला कांई ?
ठाडो ठंडो बाजै बायरियो बारै
सांय-सांय ।

लरलै बरस
बार मांय हा म्हे तीनूं
इण घणी
श्याम तो अबै ईज हुवैला बठै
अर अजीत…?
लगोलग भूसै
तळाब रै उन पार
ओळूंवां रा लावारिस गंडकड़ा ।

अंधारै सूं खुंवां रळायां
चिंथता थका पत्तियां माथली ओस
धक्को देवतो उण मून नै
चालतो जावतो
लगोलग
अर सीयां मरतै हाथां नै जेब मांय घाल्यां
विगतवार गिणता रैवणो सिक्का
ठैर-ठैर
लखाव है निवास रो ।
कड़ाकै रै सियाळै मांय
इत्तो ईज…
श्याम तो बार मांय हुवैला
अबै ईज बेसुध
अर अजीत… ?

बारै कड़ाकड़ावती ठंड है
सड़का सूनी
अर अंधारो अणमाप !
***

एक्वेरियम मांय
एक्वेरियम मांय
सपनां री रंग-रंगीली मछल्यां
तिरै आखी-आखी रात
अर दिनूगै
जीव अमूझै मछल्यां रो
आक्सीजन बिहूणै पाणी मांय ।

साचाणी
सपना री मछल्यां
चूस लेवै समूळी आक्सीजन
अर बणाय देवै जैरीलो
म्हारी आंख्यां रै एक्वेरियम रो पाणी ।

भळै दिनूगै
ऊंधार सगळो बासी पाणी
भरूं म्हैं एक्वेरियम
हियै बैंवती नदी रै
मंतरियोड़ै पाणी सूं ।
***

अनुसिरजण : नीरज दइया


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नेपाली कवि : पदम क्षेत्री 
जलम : बि.सं. 2008, जेठ 3 गते, तुरा, मेघालय, भारत
कविता संग्रै : 'आदिम सडक' (1985) 

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रामसिंह चाहल

पाणी
नदियां अर आंख्यां रै पाणी मांय
कीं खास फरक नीं है

नदियां रो पाणी
जद कदैई सूखै-
जमीम रोवै
अर टाबर तरसै
एक-एक गास खातर
अर आंख्यां रो पाणी
जद कदैई सूखै-
एक मोह तूटै
अर टाबर गोदी नै तरस जावै ।

अर फेर नदियां रो पाणी
जद कदैई उछळै
बाढ आवै
अर टाबर
एक टुकड़ै छींया नै तरस जावै,
पण जद आंख्यां रो पाणी
जद कदैई उमड़ै-
आंसू बैवै
अर टाबर
तरस जावै एक मा खातर ।
***

माटी-1
म्हारा टाबरा
थानै ठाह ईज है-
एक दिन
थानै म्हारै खन्नै आवणो है
तो पछै ऐ
बम, बंदूकां अर राइफलां !
कठैई म्हारै खन्नै
बेगो पूगण खातर
तो नीं बणाया !!
***

माटी-2
खेत री माटी
अर मन री माटी मांय
कीं घणो फरक नीं हुवै
खेत री माटी मांय
जिको बोवां
फगत
बो ई ऊगै !
अर
मन री माटी मांय
जिको नीं बोईजै
केई-केई वळा
बो ईज उगियावै ।
***
अनुसिरजण : नीरज दइया

प्रयाग शुक्ल

सबद
जिको हो सोच मांय
बो नीं रैयो
पूरो रो पूरो
सबद मांय ।

पण रैया सबद
ठिकाणो बतावता
उण सोच रो ।
***

मिनख अर पोथ्यां
उडीकै मिनख
कै कोई
बांचै बां नै !

रचै मिनख
पोथ्यां ।

उडीकै पोथ्यां ई
कै कोई
बांचै बां नै !!
***
अनुसिरजण : नीरज दइया


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हिंदी कवि : प्रयाग शुक्ल जलम : 28 मई, 1940
कविता संग्रै : कविता संभव (1976), यह एक दिन है (1980), रात का पेड़अधूरी चीज़ें तमाम (1987), यह जो हरा है (1990)  । कविकथाकार अर कला-समीक्षक रै रूप में आखै देस में चावो-ठावो नांव ।  1963-64 में 'कल्पना' (हैदराबाद) रै सम्पादक मंडल में रैया अर जनवरी 1969 सूं मार्च 1983 तांई 'दिनमानरै सम्पादकीय विभाग में काम करियां पछै दैनिक 'नवभारत टाइम्सरै सम्पादकीय विभाग में  केई बरसां काम करियो । आप ललित कला अकादमी री हिन्दी पत्रिका 'समकालीन कलारा अतिथि सम्पादक ई रैया 
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जयंत पाठक

भार
छै जद मरियोड़ो म्हारो डील
तिर परो कांठै आयो
तद समझ्यो कै जिको भार लागतो हो
बो डील रो नीं
सांस रो हो !
***

नानकियै री कविता
नानकियै रै हाथां कागद माथै मांडियोड़ी
आडी-टेढी लीकां बिच्चै
म्हैं विगतवार सबदां मांय
कविता रचण ढूकूं ।

तद कैवै आनंदवर्धन
फेरतो चोटी माथै हाथ-
काव्यस्य आत्मा ध्वनि ।
कवि मैक्लीश, पाइप सूं उठतै
धूंवै रै आखरां मांय कैवै-
ए पाइम शुड नॉट मीन बट बी…

म्हैं
नानकड़ै रै हाथां कगद माथै मंडियोड़ी
आडी-टेडी लीकां देख
कविता रचण री बात बिसराय देवूं ।
कविता सूं व्हाली तो नानकियै री
खैंच्योड़ी ऐ आडी-टेडी लीकां ईज है ।
***

छोरी परणायां पछै, घर मांय
छेकड़ फेरां री रात आई-गई
ब्यांव हुयग्यो ।
मा अबै
घर रै समान री गिणती करै
चेतो राखती जिनसं मिलावै
संभाळ-संभाळर राखै बां नै ।
थाळियां, कटोरियां, गिलासां, प्लेटियां
स्सौ कीं ठीक है
कठैई कीं गुमियो कोनी
कीं रुळियो कोनी ।

पण
चानचकै कीं छेतै आवतां ई
बा कमरै रै बिच्चै
ऊभी हुय जावै
आंख्यां सूं टप-टप ढुळण लागै
खारो-खारो सवाल-
म्हारी छोरी कठै ?
***
अनुसिरजण : नीरज दइया

15 नवंबर, 2010

के. सच्चिदानंदन

कविता रो उल्थो
जूण पलटीजै
जियां मछी तिरै पाणी रै मांय-मांय
उल्थाकार दिमाग मांय तिरै, बो बैठै
झुक्योड़ो धूड़ माथै, हरेक सबद रै पाखती
हरेक सबद रो रंग परखतो
परखतो हरेक सबद रो नाद ।

कविता रो उल्थो है खथावळ मांय
माथो बदळणो, विक्रमादित्य री कथा दांई
उल्थाकार उखणै है बीजै कवि रो माथो
खुद री धड़ माथै
हरेक ओळी है एक मारग
एक मारग उफत्योड़ो
जुद्ध, दुख अर ऊब सूं ।

आ एक गळी है बाजती
जिण मांय घूमै अजर आदमी,
भगवान अर रूंख
जठै रुकै है एक ओळी,
खुलै है एक खाई
बठै परलोक सिधारी आत्मावां
तिरस बुझावण ढूकै
जिका इण पूजीजतै मारग माथै आवै
उभराणा पगां गाभा छोड़ नै
घाटी री हवा दांई बैवै
नागा अर लुळियोड़ा ।

एक दिन म्हैं सपनो दीठियो
म्हैं खुद री ई कविता रो उल्थो कर रैयो हो
खुद री ईज भाषा मांय

आपां सगळा उल्थो करां
हरेक कविता रो खुद री भाषा मांय
पछै करां झोड़
उण रै अरथ माथै
म्हारी दीठ सूं
बाबेल री मीनार कदैई नीं चिणीजैला ।
***

घर घणी रो गीत
धूड़, भाठा, काठ अर करजै सूं
म्हैं बणायो एक घर
बिरखा मांय धुड़ग्या धूड़-भाठा
ऊदई खायगी काठ समूळो
लारै रैयग्यो फगत करजो
अबै जीवूं हूं म्हैं
उण नै चुकावण खातर ।
***
अनुसिरजण : नीरज दइया


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मलयालम कवि : के सच्चिदानंदन; जलम : 26 मई, 1946
कविता संग्रै : मलयालम में 19 कविता-संग्रै अर केई पोथ्यां प्रकासित साहित्य अकादमी री पत्रिका 'इण्डियन लिटरेचर' रा सम्पादक रैया अर साहित्य अकादमी रै सचिव रूप मांय ई बरसां काम संभाळियो ।
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अमृता प्रीतम

म्हारो ठिकाणो
आज म्हैं म्हारै घर रा
मिटाया है नम्बर
अर हटायो है
गळी रै माथै लटकतो
गळी रो नांव
अर द्योड़या है ऐनाण-सैनाण
हरेक सड़क री दिसा रा
पण जे म्हनै पावणो है-
पक्कायत ही
तो हरेक देस रै
हरेक शहर री
हरेक गळी रो खड़खड़ाओ आडो

ओ एक सराप है
एक वरदान है
अर जठै ई थानै पड़ै भळको-
आजाद आत्मा रो
- जाणजो बो ई है
म्हारो घर ।
***

अमृता प्रीतम
एक दरद हो -
जिको म्हैं पीयो
चुपचाप सीगरेट दांई

फगत कीं नजमां है -
जिकी म्हैं झाड़ी
सिगरेट सूं राख दांई …
***

खाली जागा
हा फगत दोय रजवाड़ा
एक उखाड़ करियो बारै
म्हनै अर उण नै
अर दूजै नै
करियो हो छिटकाय न्यारो
म्हां दोनूं ।

उघाड़ै आभै हेठै
म्हैं कितरी ईज ताळ
भीजती रैयी
डील रै मेह मांय
बो कितरी ई ताळ
गळतो रैयो
डील रै मेह मांय
फेर बरसां रै मोह नै
गिट परो एक जैर दांई
उण धूजतै हाथां सूं
झाल्यो म्हारो हाथ
चाल ! बगत रै छाती माथै
बणावां दोनूं एक छात
बो देख !
दूर सामीं, बठीनै
सांच अर कूड रै बिचाळै
कीं जागां खाली है ……
***
अनुसिरजण : नीरज दइया
कागद अर कैनवास / अनुवाद / नीरज दइया
कागद अर कैनवास / आवरण : इमरोज
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पंजाबी कवयित्री : अमृता प्रीतम ; 
जलम : 31 अगस्त 1919,  सरगवास 31 अक्तूबर 2005
कविता संग्रै : रै अलावा केई केई पोथ्यां प्रकासित । बरस 1957 रै साहित्य अकादमी पुरस्कार अर भारत रै सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार सूं कागज ते कैनवास पोथी सारू सम्मानित ।  
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पदमा सचदेव

चक्की रा पाट
नीं, नीं । म्हनै इतरै लाड सूं ना निरखो
काल फेर जद इण आंख्यां मांय
रीस रा राता डोरा आय ढूकैला
तद म्हनै भळै अचरज सूं थमणो पड़ैला ।
जद चक्की रा पाट थम जावै
तद कणक नै घणी तड़फड़ाट हुवै
लाड अर रीस रै दोय पाटां बिचाळै
पिस-पिस नै
तूटगी हूं म्हैं
पण साव किरच-किरच कोनी हुई ।
बायरै मांय नाचता
सोनै री बाळियां-सा कणक रा दाणां
एकर पीसीज्या पछै पाछा
नीं बण सकै कणक रा दाणा,
पण उणां नै पीड़ तो अणमाप हुय जाया करै है ।
***

ओढाळियोड़ो आडो
म्हारी सांसां सूं आंवतो काळो धूंवो
पूनम रै चांद-अगाड़ी न्हाखर
पूछियो म्हैं
थूं कियां इतरी ऊजळी ?
कांई थूं नीं जाणै
लांपो लाग्यो म्हारै शहर री झुग्गी-झूंपड़ियां रै
फूंकीजग्यो है मिनख रो मिनखपणो
हरख-कोड अर अपणायत तकात,
थूं कियां इतरी ऊजळी ?
कांई थूं नीं जाणै
म्हारै मिंदर आळै शहर रो कळस
कळीजग्यो धूंवै सूं
भोळै-भाळा अर अबखाई सूं टंक टाळणियां
भाखरां रो ओ साचो शहर
हुयग्यो एकदम गूगळो
म्हारी ढकण्यां माथै बिछगी है लासां
लोग डर परा ओढाळ नै
जड़ लिया घरां रा किंवाड़ आपरा । 
म्हैं बजाऊं हरेक आडो
ओळख लेवै हेलो तो ई
निकळ’र कोई कोनी आवै बारै !
म्हैं कठै जाऊं
खड़काऊं किण रो आडो
कै जिको खुल जावै खड़कायां ।

ऊंचै आभै बिराज्या ओ रूपाळा चंदा
बता तो सरी म्हनै
कांई हुयग्यो है म्हारै शहर मांय !
***

अनुसिरजण : नीरज दइया

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डोगरी कवयित्री पदमा सचदेव ; जलम : 17 अप्रैल 1940
पोथ्यां : अमराई, भटको नहीं धनंजय, नौशीन, गोद भरी, अक्खरकुंड, बूंद बावड़ी (आत्मकथा) साहित्य अकादमी पुरस्कार डोगरी कविता संग्रै खातर । पदमा जी हिंदी मांय ई लगोलग लिखै अर केई पोथ्यां प्रकासित ।
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14 नवंबर, 2010

निदा फाजली

एक जवान ओळूं
बगत परवाण
म्हारै केसां चांदी रळगी
अठी-उठी जावण री आदत ई ढळगी
आरसी जिकी कैवै
साची ई कैवै
एक जैड़ो चैरो किण रो रैवै
इण बदळतै बगत
धोरां री धरती पण
कठैई किणी घर मांय
एक छोरी ऐड़ी है
बरसां पैली जैड़ी ही बा
अजै ई वा वैड़ी है !
***

अरदास
असमानी आभै बैठिया
कद तांई
चांद-तारां सूं झांकोला
परबत री ऊंची चोटी सूं
कद तांई
दुनिया नै निरखोला
पूजीजती पोथ्यां मांय
कद तांई
करोला अराम
म्हारो छप्पर टपकै
सूरज बण नै
इण घर नै सुखावो
पींदै बैठियो पींपो
बण नै कणक
इण मांय आवो
मा सा रो चसमो तूटग्यो
बण नै काच
इण मांय लागो
गूंगा हुयोड़ा है आंगणै मांय टाबर
बण नै दड़ी
आंनै रमावो
सिंझ्यां हुयगी चांद उगावो
पेड़ हिलावो
बयारो बैवाबो

काम घणा है
सायैरो लगावो अल्ला मियां
म्हारलै घरै पण आय जावो नीं
अल्ला मियां …।
***

दस दूहा
(1)
चक्कू  काटै बांस  नै,  बंसी  खोलै  भेद ।
उतरा ई सुर जाणजै, जितरा जिण में छेद ॥
(2)
आखै जीवन भटकिया, खुली ना मन री गांठ ।
उण रो मारग छोड़ नै,  बीं  री  जोई   बाट ॥
(3)
नदियां सींचै खेत नै, सूवो कुतरै आम ।
सूरज ठेकैदार-सो, बांटै  सै  नै  काम ॥
(4)
म्हारै जैड़ो आदमी,  म्हारो ई है नांव ।
ऊंधी-सूंधी बो करै, करै म्हनै बदनाम ॥
(5)
बूढो पीपळ पाळ रो, बतळावै दिन-रात ।
जिको हेठ कर नीकळै,  माथै फेरै हाथ ॥
(6)
म्हैं अर थूं हां जातरी, आवै-जावै रेल ।
ऐकूकै रै गांव लग, आपस रो है मेळ ॥
(7)
घर नै जोवां रात-दिन,  लाधै  कोनी ठांव ।
बो मारग ई भूलग्यो, जिण मारग हो गांव ॥
(8)
सगळी पूजा एक-सी,  न्यारी-न्यारी रीत ।
मसजिद जावै मोलवी, कोयल गावै गीत ॥
(9)
दुख री नगरी कौणसी, आंसू री के जात ।
सगळा तारा दूर-दूर,  सगळा छोटा हाथ ॥
(10)
एक पालणै  प्रीत  रख,  दूजै  में  संसार ।
तोल्यां ई ठा लागसी, किण में कितरो भार ॥
***
अनुसिरजण : नीरज दइया


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कवि : निदा फाजली ; 12 अक्टूबर, 1938 / 08 फरवरी 2016
कविता संग्रै : आँखों भर आकाश, मौसम आते जाते हैं, खोया हुआ सा कुछलफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँसफ़र में धूप तो होगी ; 1998 रै साहित्य अकादमी पुरस्कार सूं सम्मानित
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कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता इण ओळी रै मारफत एक गीतकार रै रूप निदा फाजली सूं म्हारी ओळख रै पछै या पैली दूरदर्शन रै कवि-सम्मेलनां रै संचालन करता बां रा दरसण करिया । दरसण इण खातर कै किणी संत दांई फाजली जी ई कथ सकै- घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए । उर्दू कविता मांय गालिब अर मीर किण नै पसंद कोनी, आधुनिक कविता ई घणी लांठी है । पण जिकी बात आपरी शायरी में निदा फाजली कैयी बा बेजोड़ नै निरवाळी है । आँखों भर आकाश  देवनागरी में निदा फ़ाज़ली रो एक संकलन है जिण मांय बां री सोच-समझ अर सरोकार खुद कवि रै संचै सूं सामीं आया । ओ बां री प्रतिनिधि कवितावां रो संग्रै है ।  अठै बां री घणी तारीफ रो सांच आप तांई इण दूहै रै मारफत म्हनै पतियारो है कै मतै ई पूग जावैला । वो सूफ़ी का क़ौल हो या पण्डित का ज्ञान, जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान ।

गिरधर राठी

उखड़ियो नींद
साची वो कमती नीं हो
जिण सूं उखड़ी ही नींद ;
ना ईज ओ कमती है-
कै उखड़ियोड़ी नींद
सुपनो नीं बणाय सकै ।

अंधारै मांय
का रोसणी चास
जिको लखाव है
साची वो ईज कमती नीं है ।
पण नींद वा कांई नींद
जिकी घड़ नीं सकै सुपनां !
भासा वा कैड़ी भासा
जिकी कथ नीं सकै-
देखो !
***

सड़क माथै
कांई बा जोध-जवान थाकगी है
उण डोकरी रो हाथ पकड़िया-पकड़िया ?

का उण नै आवै है लाज जवानी में
बुढापै रै साथै ?

उमर रो हाथ पकड़ियां
कांई बा चालती ईज जावैला !
***

अटकळ
स्सौ कीं
छेकड़ खूट जावैला अटकळां मांय

थूं बायरै रै बैवण रो
मकसद नीं जाण सकै
अर ना ई
चाणचकै उदास हुवण रो

कोई फूल
सदीव सागी सागी रंग ई क्यूं ओढै ?
रगत
एकदम धोळो क्यूं नीं हुय जावै ?
रगत
एकदम धोळो…
रगत…
***

भव-भूति
मिनख हुवैला तो डील
हुवैला, तो
रंग हुवैला
दाय करूंला मन-पसंद ।

मिनख हुवैला तो हुवैला मन
पसंद
ना-पसंद ।
मिनख हुवैला तो भलै ई हुवैला
मिनख ।
***
अनुसिरजण : नीरज दइया


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हिंदी कवि : गिरधर राठी ; जलम : 1 अगस्त, 1944 
कविता संग्रै : बाहर भीतर, उनींदे की लोरी, निमित्त, अंत के संशय
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कवि श्री गिरधर राठी सूं म्हारी ओळखाण बरसां पैली भाई नवनीत पाण्डे रै घरै बां रै कविता-संग्रै बाहर भीतर बांच्यां हुई, पछै उनींदे की लोरी बांच्यां बै म्हारी पसंद रा ठावा कवि बणग्या । जद राठी जी समकालीन भरतीय साहित्य रा संपादक बण्या तो बां सूं कागदां रै मारफत बंतळ हुवती रैयी । बिंयां तो समकालीन भरतीय साहित्य रै अंकां मांय राजस्थानी नै ठौड़ बगत-बगत माथै मिलती रैयी ही, पण राजस्थानी रा कमती ई कवि-लेखक छपता हा । राठी जी रै संपादन मांय राजस्थानी नै एकठ छपण रो संजोग सध्यो । जोधपुर मांय कवि कथाकार मीठेस निरमोही रै संयोजन मांय राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति रै कथा-समारोह मांय हिंदी कविता जातरा मांय आपरी ठावी ठौड़ राखणिया कवि आलोचक  श्री गिरधर राठी सूं पैली बार परतख मिलण रो संजोग बण्यो । बठै आप सूं समकालीन भारतीय साहित्य अर खुद राठी जी रै सिरजण बाबत बंतळ हुई  । बिंयां तो हिंदी कविता मांय केई कवि पसंद रा है, अनुसिरजण पेटै आपां बां कवियां री कवितावां नै राजस्थानी मांय बांची नै आगै ई बांचाला । ऐ कवितावां "जागती जोत" मांय संपादक श्री भगवती लाल व्यास प्रकासित ई करी ही ।